मैथिलीशरण गुप्त की मनुष्यता पर कविता Manushyata poem in hindi
Manushyata poem in hindi
Hindi poem manushyata-दोस्तों कैसे है आप सभी,दोस्तों आज हम आप सभी के समक्ष प्रस्तुत करने वाले है मैथिलीशरण शरण गुप्त जी की एक बहतरीन कविता जो आपको काफी प्रेरित करेगी तो चलिए पढ़ते है इस बेहतरीन कविता को-
विचार लो की मिर्त्यु हो ना मिर्त्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यो मरो की याद जो करे सभी
हुयी ना यो सु मिर्त्यु तो विर्था मरे,विर्था जिए.
मारा नहीं वाही की जो जिया ना आपके लिए.
यही पशु प्रवर्ती है की आप आप ही चरे,
वाही मनुष्य है की जो मनुष्य के लिए मरे.
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती.
उसी उदार से धरा क्रतार्थ भाव मानती.
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजति,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है वही,
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
“मनुष्य मात्र बन्धु है” यही बड़ा विवेक है,
पुराण पुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
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