परशुराम पर निबंध Essay on parshuram in hindi

Essay on parshuram jayanti in hindi

Parshuram – दोस्तों आज हम आपको इस आर्टिकल के माध्यम से त्रेता युग मे जन्मे भगवान परशुराम  के बारे में बताने  जा रहे हैं । चलिए अब हम आगे बढ़ते हैं और इस आर्टिकल को पढ़कर भगवान परशुराम के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं ।

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भगवान परशुराम के बारे में – त्रेता युग में जन्मे भगवान परशुराम बहुत ही योद्धा ऋषि थे । भगवान परशुराम ने त्रेता युग में एक ब्राह्मण परिवार मे जन्म लिया था । भगवान परशुराम के बारे में पौराणिक ग्रंथों में यह बताया गया है कि भगवान परशुराम सृष्टि को जन्म देने वाले विष्णु भगवान के छठे अवतार थे । भगवान परशुराम के बारे में पौराणिक ग्रंथों में यह बताया गया है कि जब भृगु श्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा एक पुत्रेष्ठी यज्ञ कराया गया था तब उस संपूर्ण यज्ञ मे देवराज इंद्र प्रश्न हुए थे और देवराज इंद्र के वरदान पर रेणुका के गर्भ से वैशाख महीने के शुक्ल तृतीय को ऋषि भगवान परशुराम का जन्म हुआ था ।

भगवान परशुराम का जन्म भले ही एक ब्राह्मण परिवार में हुआ हो परंतु वह एक क्षत्रिय प्रवृत्ति के थे , उनके अंदर क्षत्रिय गुण समाहित थे । भगवान परशुराम का स्वभाव बहुत ही अच्छा था । वह पृथ्वी कल्याण के लिए हमेशा तत्पर रहते थे । भगवान परशुराम ने कई कठिन यज्ञ किए थे । भगवान परशुराम के द्वारा कई वर्षों तक तपस्या भी की गई है और तपस्या के बाद उनको कई वरदान भी प्राप्त हुए हैं । भगवान परशुराम एक ऐसे विद्वान ऋषि के रूप में पहचाने जाते हैं जिन्होंने ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए कई कार्य किए हैं ।

भगवान परशुराम जी शिव जी के परम भक्त थे । शिवजी की उपासना करने के लिए उन्होंने कठिन से कठिन तपस्या की थी और भगवान शिव जी ने उनको कई वरदान दिए हैं । भगवान शिव जी से परशुराम जी को उन्हें श्री कृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच भी प्राप्त हुआ है । इसके साथ-साथ भगवान परशुराम को त्रिलोकनाथ शिवजी से स्तवराज स्त्रोत एवं मंत्र कलपतरु भी प्राप्त हुआ है । भगवान परशुराम एक दृढ़ संकल्पी थे । कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान परशुराम जो भी दृढ़ संकल्प लेते थे वह उस कार्य को अवश्य पूरा करते थे । भगवान परशुराम  चक्रतीर्थ के लिए , कठिन तप के लिए भी जाने जाते हैं ।

भगवान परशुराम ने चक्रतीर्थ का कठिन तप करके भगवान विष्णु को प्रसन्न किया था और भगवान विष्णु ने भगवान परशुराम को त्रेता में राम अवतार होने पर तेजो हरण के उपरांत कल्पान्त पर्यंन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का बर दिया था । यदि हम भगवान परशुराम के निवास स्थल के बारे में बात करें तो भगवान परशुराम महेंद्र गिरी पर निवास करते थे । जहां पर भगवान परशुराम ने अपना अधिक समय व्यतीत किया वहीं पर भगवान परशुराम ने कठिन तप भी किया था । भगवान परशुराम एक ऐसे  सर्वश्रेष्ठ महर्षि के रूप में पहचाने जाते हैं जिनके बारे में भारतीय ग्रंथों में बताया गया है ।

भगवान परशुराम के बारे में पौराणिक ग्रंथों में ऐसा बताया जाता है कि भगवान परशुराम के द्वारा ही भारत देश के कई गांवो का निर्माण किया गया था । भगवान परशुराम शस्त्र विद्या के महान गुरु भी थे । जिन्होंने कई योद्धाओं को शस्त्र विद्या की शिक्षा दी थी । भगवान परशुराम ऐसे महापुरुष के रूप में भारतीय ग्रंथों में पहचाने जाते हैं जिन्होंने पुरुषों के लिए आजीवन एक पत्नी व्रत के पक्षधर के रूप में अपने विचार व्यक्त किए थे । जिसके लिए भगवान परशुराम ने अत्रि की पत्नी अनुसुइया एवं अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्र एवं उनके सबसे अच्छे प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी जागृति अभियान को भी आगे बढ़ाया था ।

जिस कार्य को सफल बनाने के लिए भगवान परशुराम ने काफी मेहनत की थी और वह इस कार्य को निरंतर अपने साथियों के साथ मिलकर आगे बढ़ाते चले गए थे ।

भगवान परशुराम की शिक्षा दीक्षा के बारे में – भगवान परशुराम को आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम से प्राप्त हुई है । वह एक ब्राह्मण कुल में जन्मे थे । इसीलिए उनकी शिक्षा को बढ़ाने के लिए उनको महर्षि विश्वामित्र आश्रम में रखा गया था । भगवान परशुराम ने वैष्णव धनुष एवं ब्रह्म ऋषि कश्यप से पूरी विधिवत अविनाशी वैष्णव मंत्र प्राप्त किया था । भगवान परशुराम ने कैलाश गिरीश्रंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में रहकर कठिन तप करकर विद्या प्राप्त करके विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभी नामक परसु प्राप्त किया था ।

भगवान परशुराम ने उच्च शिक्षा दीक्षा प्राप्त करने के बाद एकादश  छंद युक्त शिव पंचत्वारिंशनाम स्त्रोत भी लिखा है । पौराणिक कथाओं में भगवान परशुराम की शिक्षा दीक्षा के बारे में ऐसा भी कहा गया कि जब भगवान परशुराम बाल्य अवस्था में थे तब उनकी माता के द्वारा उनको शिक्षा दीक्षा दी गई थी और भगवान परशुराम को अधिकांश शिक्षा दीक्षा उनकी माता के द्वारा ही दी गई है । अपनी शिक्षा दीक्षा प्राप्त करने के समय भगवान परशुराम बहुत ही सहनशील थे । भगवान परशुराम भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी संतानों में से एक थे ।

जिन्होंने सदैव अपने गुरु , माता पिता की आज्ञा का पालन किया है । कभी भी भगवान परशुराम ने अपनी माता पिता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया है । भगवान परशुराम का अस्त्र फरसा है जिस अस्त्र का उपयोग वह अक्सर करते थे ।

भगवान परशुराम के नामकरण के बारे में – भगवान परशुराम का नाम पितामह भृगु के द्वारा संपन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम  पर रखा गया था । भगवान परशुराम  का नाम जामदग्न्य एवं शिव जी के द्वारा प्राप्त प्रदत परशु धारण किए रहने के कारण इनको परशुराम का नाम मिला था ।

भगवान परशुराम का पौराणिक परिचय – भगवान परशुराम को भारत देश में पूजा जाता है । कई जगहों पर भगवान परशुराम के मंदिर भी स्थापित किए गए हैं । जिन मंदिरों पर भारत के हिंदू धर्म के लोग और भी कई धर्म के लोग जाकर भगवान परशुराम के दर्शन करते हैं । भगवान परशुराम जी का उल्लेख भारत के महान ग्रंथ रामायण , भागवत पुराण , महाभारत आदि मे किया गया है । यदि हम भगवान परशुराम की श्रेष्ठा , वीरता को विस्तार से जानना चाहिए ।  इसके बाद भगवान परशुराम जी के बारे में कल्कि पुराण ग्रंथ में भी बताया गया है । तो हमें भारतीय हिंदू ग्रंथों को अवश्य पढ़ना चाहिए ।

भारतीय हिंदू ग्रंथों के अनुसार भगवान परशुराम जी ने अहंकारी एवं धृष्ट हैहय प्रवृत्ति के क्षत्रियों को पृथ्वी से संघार करके तकरीबन 21 बार नष्ट किया था । भारतीय पौराणिक ग्रंथों को पढ़ने के बाद भगवान परशुराम के बारे में यह भी पता चलता है कि भगवान परशुराम धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार प्रसार करने के पक्षधर थे । जिन्होंने वैदिक संस्कृति के प्रचार प्रसार में अपने शिष्यों के साथ मिलकर काफी योगदान दिया था । पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान परशुराम के बारे में यह भी कहा जाता है कि भगवान परशुराम के द्वारा ही भारत देश के चारों तरफ जितनी भी ग्राम बसे हुए हैं उनमें से अधिकांश ग्राम भगवान परशुराम ने ही हैं ।

भगवान परशुराम का समावेश कोंकण , केरल , गोवा में समाहित है । भारतीय पौराणिक ग्रंथों में भगवान परशुराम के बारे में यह भी कहा गया है कि भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक  समुद्र को पीछे की ओर धकेल दिया था ।जिसके बाद नई भूमि का निर्माण हुआ था । जिस भूमि पर कोंकण , गोवा और केरला बसा हुआ है । इसी कारण से गोवा , कोंकण , केरला में रहने वाले लोग भगवान परशुराम को  मानते हैं , उनकी पूजा करते हैं । जहां पर भगवान परशुराम के मंदिर भी स्थापित किए गए थे ।

भगवान परशुराम इस धरती पर रहने वाले जीव सृष्टि एवं प्राकृतिक सौंदर्य जीवंत को जन्मो जन्मांतर तक जीवित रखना चाहते थे । यदि हम भगवान परशुराम के विचारों के बारे में बात करें तो भगवान परशुराम के विचार सदैव भारत के उज्जवल भविष्य को लेकर बहुत ही अच्छे थे ।पौराणिक ग्रंथों में भगवान परशुराम के विचारों के बारे में ऐसा कहा गया है कि उनका कहना था कि एक राज्य के राजा का धर्म वेदिक जीवन का प्रचार प्रसार करना होना चाहिए ना कि अपनी प्रजा से अपनी ताकत के बल पर आज्ञा पालन करवाना ।

इस तरह से परशुराम के विचार थे । वह भारतीय संस्कृति , यहां की सुंदरता , पेड़ पौधे , पशु पक्षी सभी को जीवित रखने के पक्षधर  थे । उनका कहना था कि इन सभी से पूरी सृष्टि सुंदर दिखाई देती है । भगवान परशुराम पशु पक्षी से बात करते थे । भगवान परशुराम को पशु पक्षियों की बात स्पष्ट रूप से समझ सकने की क्षमता थी । भगवान परशुराम किसी भी खूंखार जानवर के सामने जाते थे तब वह खूंखार जानवर भगवान परशुराम से मित्रता कर लेता था । भगवान परशुराम सभी जीव जंतुओं से बहुत प्रेम करते थे ।

भगवान परशुराम के परम शिष्यो के बारे में – भगवान परशुराम के परम शिष्य द्रोण , भीष्म , कौरव पांडवों के गुरु एवं अश्वत्थामा के पिता कर्ण के गुरु थे । जिन्होंने इन सभी शिक्षकों को धर्म धनुष विद्या की शिक्षा दी थी ।भगवान परशुराम के सबसे अच्छे और परम शिष्य के रूप में कर्ण का नाम सबसे पहले आता है । कर्ण और भगवान परशुराम के बीच में गुरु और शिष्य का सबसे गहरा संबंध था । कर्ण के बारे में ऐसा कहा जाता है कि कर्ण को यह कभी भी मालूम नहीं था कि वह जन्म से ही क्षत्रिय था  ।कर्ण अपने आप को सदैव शुद्र समझता रहा था ।

कर्ण ने भगवान परशुराम से यह बात छुपाई थी कि वह शुद्र वर्ण के हैं क्योंकि कर्ण को यह पता था कि भगवान परशुराम शुद्र वर्ण व्यवस्था को अनुचित मानते थे । कर्ण को यह डर था कि यदि परशुराम को यह बात मालूम चल गई तो भगवान परशुराम उनको शिक्षा दीक्षा देने से मना कर देंगे ।इस तरह की सोच मानकर कर्ण ने भगवान परशुराम से शुद्र वर्ण होने की बात छुपाई थी । कर्ण ने भगवान परशुराम को धोखा देकर गुरु के सम्मान को ठेस पहुंचाई थी । कर्ण यदि भगवान परशुराम को सच्चाई बता देते तो भी भगवान परशुराम उनकी वीरता और शौर्य को देख कर उनको शिक्षा दीक्षा अवश्य देते ।

परंतु कर्ण ने भगवान परशुराम को यह सच्चाई छुपा कर रखी थी । जब भगवान परशुराम को इस बात का पता चला तो उनको बड़ा दुख हुआ और भगवान परशुराम ने कर्ण को यह श्राफ दिया था की कर्ण ने जितनी भी धनुर्विद्या शिक्षा दीक्षा प्राप्त की है वह उसके कभी काम में नहीं आएगी । इस तरह के श्राफ के बाद कर्ण श्राफ में बंध गया था । इसी कारण से जब कुरुक्षेत्र में युद्ध हो रहा था तब उस घमासान युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने-सामने युद्ध लड़ रहे थे और उस युद्ध में अर्जुन ने कर्ण  को मार दिया था क्योंकि कर्ण को भगवान परशुराम का श्राफ था कि वह सीखी गई धनोरर्विद्या का उपयोग नहीं कर पाएगा ।

इसीलिए कर्ण युद्ध के समय धनोरर्विद्या का उपयोग करना भूल गया था और अर्जुन ने धनुष से बाण चलाकर कर्ण को माार दिया था । यदि कर्ण भगवान परशुराम से सच्चाई नहीं छुपाता तो वह धनुर्विद्या का उपयोग करके अर्जुन को परास्त कर देता  और कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण को जीत प्राप्त होती ।

परशुराम के द्वारा अपनी मां का वध करने के बारे में – पौराणिक कथाओं में भगवान परशुराम के बारे में यह बताया गया है कि भगवान परशुराम एक माता पिता के आज्ञाकारी पुत्र थे । भगवान परशुराम माता रेणुका और ऋषि जमदग्नि की चौथी संतान थे । एक बार ऋषि जमदग्नि की पत्नी माता रेणुका स्नान करने के लिए सरोवर में गई हुई थी । जिस समय माता रेणुका सरोवर में स्नान कर रही थी उसी समय वहां पर राजा चित्ररथ नौका बिहार कर रहे थे । जब माता रेणुका ने राजा चित्ररथ को देखा तो उनके मन में विकार उत्पन्न होने लगे थे और उनकी मनोदशा बिगड़ गई थी ।

माता रेणुका उसी समय वहां से वापस आश्रम में लौट आई थी । जिस समय माता रेणुका आश्रम में लौट कर आई उस समय ऋषि जमदग्नि वहीं पर थे । जब ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका का आमना सामना हुआ तब ऋषि जमदग्नि माता रेणुका की मनोदशा देखकर सब कुछ समझ गए थे । जिसके कारण ऋषि जमदग्नि को बहुत क्रोध आया और ऋषि जमदग्नि ने अपने पुत्रों से अपनी मां का बध करने के लिए कहा परंतु भगवान परशुराम के अग्रजो ने माता रेणुका का बध करने से मना कर दिया था ।

जब ऋषि जमदग्नि ने अपने चौथे पुत्र भगवान परशुराम को माता रेणुका का बध करने के लिए कहा तब भगवान परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा को मानकर अपने फरसे से अपनी मां का धड़ से सिर अलग कर दिया था । यह देखकर ऋषि जमदग्नि भगवान परशुराम से बहुत प्रसन्न हुए और भगवान परशुराम से मनचाहा वरदान मांगने के लिए भी कहा था । भगवान परशुराम ने पिता जमदग्नि से यह वरदान मांगा था कि वह माता रेणुका को पुनर्जीवित करें । जिनकी की आज्ञा को मानकर ऋषि जमदग्नि ने माता रेणुका को पुनर्जीवित कर दिया था और भगवान परशुराम के भाइयों को ऋषि जमदग्नि ने यह  श्राफ दिया था कि वह अपना विवेक विचार खो जाएंगे ।

भगवान परशुराम को समस्त शास्त्र और शस्त्र का ज्ञाता होने का आशीर्वाद दिया था । जब भगवान परशुराम ने अपने पिता ऋषि जमदग्नि की आज्ञा को मानकर अपनी माता का सिर धड़ से अलग किया था उसी समय भगवान परशुराम पर मातृ हत्या का  श्राफ लग गया था । भगवान परशुराम मातृ हत्या के श्राप से मुक्ति पाने के लिए ऊंचे पहाड़ों पर भगवान शिव की कठोर तपस्या करने के लिए चले गए थे और कई वर्षों तक भगवान परशुराम ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी । भगवान शिव भगवान परशुराम की तपस्या से खुश होकर वहां पर प्रकट हुए और भगवान परशुराम को शिव जी ने मृत्यु लोक के कल्याणार्थ परसु अस्त्र प्रदान किया था ।

जिसके बाद भगवान राम को सभी परशुराम के नाम से जानने लगे थे ।

भगवान परशुराम  का भीष्म के साथ हुए युद्ध के बारे में – भगवान परशुराम का भीष्म के साथ बहुत ही धमासान युद्ध हुआ था । यह युद्ध भीष्म और भगवान परशुराम के बीच तकरीबन  23 दिनों तक चला था  । इस युद्ध में  भगवान  परशुराम ने  भीष्म  पर  अपने  बाणों से  कई घातक  प्रहार  किए थे  । कभी  भगवान  परशुराम  अपनी बाण शक्ति से  भीष्म  को  मूर्छित  कर  देते  थे  तो  कभी  भीष्म  अपनी शक्ति से  भगवान परशुराम  को  मूर्छित  कर  देते  थे  । भगवान  परशुराम  ने  कठोर तपस्या करके  जितने भी शस्त्र , अस्त्र  प्राप्त किए थे उन सभी  शस्त्रों  , अस्त्रों  का प्रयोग  भगवान परशुराम ने  भीष्म पर किया था ।

इस युद्ध में भीष्म ने कई बार भगवान परशुराम के द्वारा किए गए शस्त्र प्रहार को अपने शस्त्र से नष्ट कर दिया था । जिसके बाद भगवान परशुराम बहुत क्रोधित अवस्था में आ गए थे । भगवान परशुराम  को इतना अधिक क्रोध आ गया था की वह अपनी मृत्यु की परवाह ना करके वह भीष्म पर एक के बाद एक प्रहार करते रहे थे । जब सूरज ढल जाता था तब दोनों युद्ध क्षेत्र में लड़ना बंद कर देते थे जब सुबह होती थी तब भीष्म और भगवान परशुराम पुनः युद्ध क्षेत्र में आकर युद्ध लड़ने लगते थे ।

भगवान परशुराम और शिव अवतार हनुमान के बीच में हुए घमासान युद्ध के बारे में – भगवान परशुराम त्रेता युग में जन्मे थे और उसी युग में भगवान राम भी जन्मे थे । एक बार जब जनकपुरी में अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन कराया गया था तब उस आयोजन में भगवान राम भी शामिल हुए थे और उस स्वयंवर में दूर-दूर से राजाओं को आमंत्रित किया गया था । सभी राजाओं को यह कहा गया था कि जो भी राजा इस धनुष को तोड़ेगा उस राजा के साथ सीता का विवाह कर दिया जाएगा । परंतु कई राजाओं ने प्रयास किया लेकिन उस धनुष को नहीं तोड़ पाया था ।

जब राम भगवान ने उस धनुष को उठाया और उस धनुष को तोड़ दिया था जिसके बाद भगवान परशुराम क्रोधित हुए हो गए और वहां पर आकर उनका सामना भगवान राम से हो गया था और जैसे ही भगवान राम के सामने भगवान परशुराम आए तो भगवान राम ने भगवान परशुराम के तेज को अपने में समाहित कर लिया था । जिसके बाद भगवान परशुराम पुनः पहाड़ी पर तपस्या करने के लिए चले गए थे । जब भगवान परशुराम पहाड़ी पर तपस्या करने के लिए चले गए थे तब वह निरंतर अपनी तपस्या को सफलता की ओर बढ़ाने के लिए कठोर मेहनत कर रहे थे ।

जब भगवान राम के द्वारा अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया गया था तब उस अश्वमेघ के घोड़े की रक्षा की जिम्मेदारी हनुमान पर रखी गई थी । जब एक राजा ने उस घोड़े को बंदी बना लिया था तब उस घोड़े को छुड़ाने के लिए हनुमान जी गए थे और उस समय उस राजा की तरफ से भगवान परशुराम सामने आए और भगवान परशुराम और भगवान हनुमान के बीच घमासान युद्ध हुआ जो भयंकर युद्ध में से एक था ।

भगवान परशुराम और सहस्त्रार्जुन के बीच में हुए घमासान  युद्ध के बारे में – सहस्त्रार्जुन बहुत ही पराक्रमी राजा था । सहस्त्रार्जुन एक ऐसा राजा था जिसने अपने पराक्रम से युद्ध में रावण को परास्त किया था । राजा सहस्त्रार्जुन हैहय वंश के राजा कार्ट वीर्य और रानी कौशिक का पुत्र था । जिसका वास्तविक नाम अर्जुन था ।सहस्त्रार्जुन ने दत्तात्रेय भगवान की कठोर तपस्या करके भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था । भगवान दत्तात्रेय सहस्त्रार्जुन की तपस्या से खुश हुए थे और सहस्त्रार्जुन को मनचाहा वरदान मांगने के लिए कहा था । सहस्त्रार्जुन ने भगवान दत्तात्रेय से वरदान में यह मांगा था कि उसके 1000 हाथ हो जाएं ।

इस तरह से भगवान दत्तात्रेय ने सहस्त्रार्जुन को 1000 हाथ होने का वरदान दिया था । सहस्त्रार्जुन बहुत ही घमंडी राजा था । सहस्त्रार्जुन प्रजा पर अत्याचार करता था । सहस्त्रार्जुन स्त्री का सम्मान नहीं करता था । राजा सहस्त्रार्जुन से कई लोग दुखी थे क्योंकि राजा सहस्त्रार्जुन दूसरे व्यक्ति पर अत्याचार करता रहता था । राजा सहस्त्रार्जुन को अपनी शक्ति पर बहुत ही घमंड था । एक बार राजा सहस्त्रार्जुन जमदग्नि के आश्रम विश्राम करने के लिए पहुंचा था । ऋषि जमदग्नि ने राजा सहस्त्रार्जुन का स्वागत बहुत धूमधाम से किया था और क्षणभर में सहस्त्रार्जुन की समस्त सेना को खाना खिलाने का प्रबंध किया था ।

ऋषि जमदग्नि के पास एक कामधेनु नाम की गाय थी । जिस गाय को देखकर राजा सहस्त्रार्जुन के मन में उसे प्राप्त करने का विचार आने लगा था । राजा सहस्त्रार्जुन ने ऋषि जमदग्नि से वह गाय मांगी परंतु ऋषि जमदग्नि ने उस गाय को देने से मना कर दिया था । जिसके बाद सहस्त्रार्जुन ने अपनी सेना के साथ मिलकर कामधेनु गाय को छीनने की कोशिश की थी । परंतु वह गाय वहां से मुक्त होकर देवलोक में चली गई थी । जिसके बाद सहस्त्रार्जुन ने जमदग्नि के आश्रम को तहस-नहस कर दिया था ।

जब जमदग्नि के आश्रम पर परशुराम पहुंचे तब आश्रम की इतनी बुरी हालत को देखकर परशुराम ने अपनी माता से इस घटना के बारे में विस्तार से पूछा । जब परशुराम की मां ने पूरी घटना परशुराम को बताई तब परशुराम को सहस्त्रार्जुन पर बहुत गुस्सा आया और उसी समय परशुराम ने यह प्रण लिया कि वह सहस्त्रार्जुन को पूरी तरह से बर्बाद कर देगा । इस तरह का संकल्प लेकर परशुराम सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मति की ओर चले गए और वहां पर जाकर सहस्त्रार्जुन को युद्ध के लिए युद्ध भूमि में चुनौती दी । सहस्त्रार्जुन अपने ही घमंड में इतना चूर था की वह युद्ध क्षेत्र में आ गया था ।

इसके बाद भगवान परशुराम और सहस्त्रार्जुन के बीच घमासान युद्ध हुआ था और भगवान परशुराम ने सहस्त्रार्जुन के 1000 हाथों को काट दिया और उसका वध कर दिया था । जब भगवान परशुराम सहस्त्रार्जुन का वध करके आश्रम लौट कर आए तब उनके पिता ने भगवान परशुराम से कहा कि यह तुमको नहीं करना था । अब तुम इस गलती का पश्चाताप करने के लिए तीर्थयात्रा के लिए निकल जाओ ।अपनेे पिता की आज्ञा को मानकर भगवान परशुराम तीर्थ यात्रा करने के लिए निकल गए थे ।

जब भगवान परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए थे तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने मिलकर जमदग्नि के आश्रम पर हमला कर दिया था और सभी ब्राह्मणों को मार दिया था , जमदग्नि के आश्रम को जला दिया था । सहस्त्रार्जुन के पुुुुुुत्रो ने जमदग्नि का सिर धड़ से अलग करके उनको मार दिया था । इस तरह की घटना हो जाने के बाद भगवान परशुराम की माता रेणुका ने अपने पुत्र को याद किया और भगवान परशुराम अपनी माता के बुलावे को महसूस कर चुके थे और वह तपस्या को बीच में ही छोड़कर जमदग्नि आश्रम लौट आए थे ।

आश्रम आने के बाद परशुराम ने आश्रम के आसपास की जगह को बर्बाद हुए देखा और अपने पिता के शरीर से सिर को अलग हुए देखा तब उनको बहुत क्रोध आया ।इसके बाद अपनी माता से पूरी कहानी जानकर भगवान परशुराम ने पूरे हैहय वंश को नष्ट करने का निर्णय ले लिया था और भगवान परशुराम उसी समय सहस्त्रार्जुन के पुत्रों से युद्ध करने के लिए निकल पड़े थे और उन्होंने सहस्त्रार्जुन के सभी पुत्रों का वध कर दिया था । जिसके बाद भगवान परशुराम यह प्रण ले चुके थे कि वह क्षत्रिय वंश को पूरी तरह से तहस-नहस कर देंगे ।

इसीलिए भगवान परशुराम ने 21 बार धरती से क्षत्रिय वंश को तहस-नहस किया था ।

Parshuram jayanti in hindi भगवान परशुराम जयंती के बारे में – भगवान परशुराम का जन्म त्रेता युग में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था । उनका जन्म वैशाख तृतीय शुक्ल के समय हुआ था । उनके जन्म दिवस के शुभ अवसर पर प्रतिवर्ष भारत देश में भगवान परशुराम जयंती बड़े ही धूमधाम से मनाई जाती है । भारत देश के सभी स्थानों पर भगवान परशुराम की जयंती पर जुलूस निकाला जाता है और भगवान परशुराम की प्रतिमा की पूजा  की जाती है । भगवान परशुराम की जयंती पर कई जगहों पर प्रसाद भी वितरित किया जाता है ।

भगवान परशुराम की जयंती को बड़े ही धूमधाम से मना कर सभी लोग भगवान परशुराम से यह सीख लेते हैं कि कभी भी अपने माता पिता की आज्ञा को नकारना नहीं चाहिए । जिस तरह से भगवान परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा को मानकर अपनी माता का धड़ से सिर अलग कर दिया था और अपने पिता के कहने पर अपनी माता का वध करने के लिए तैयार हो गए थे ठीक उसी तरह से हमें भी अपने माता पिता के बताए गए रास्तों पर चलना चाहिए , उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए ।

भगवान परशुराम की जयंती पर हम सभी लोगों को भगवान परशुराम से यह सीख लेना चाहिए कि हमें अपने क्रोध को काबू करके रखना चाहिए क्योंकि भगवान परशुराम को बहुत क्रोध आता था और वह अपने क्रोध में आकर कई गलत कार्य कर देते थे । हमें  भगवान परशुराम से सीख ले कर अपने क्रोध को खत्म कर देना चाहिए । जिस प्रकार से भगवान परशुराम जयंती को सभी एकत्रित होकर बड़े धूमधाम से मनाते हैं ठीक उसी तरह से भगवान परशुराम की जयंती पर हम सभी को यह प्रण लेना चाहिए कि हम भारतीय संस्कृति और पेड़ पौधे , वातावरण को स्वच्छ रखेंगे क्योंकि भगवान परशुराम  सुंदर प्रकृति को जीवित रखने के पक्ष में थे ।

भगवान परशुराम पशु पक्षियों से बहुत प्रेम  करते थे । भगवान परशुराम की तरह हम सभी को जीव जंतु , पशु पक्षी , पेड़ पौधों से प्रेम करना चाहिए । भगवान परशुराम का कहना था कि यह धरती तब सुंदर लगेगी जब धरती पर पेड़-पौधे , जीव जंतु जीवित होंगे । भगवान परशुराम की जयंती पर भगवान परशुराम के मंदिरों पर बड़े ही धूमधाम से पूजा पाठ की जाती हैं । भगवान परशुराम जयंती के दिन भगवान परशुराम को फूलों से सजाया जाता है , फूल माला चढ़ाई जाती हैं और भगवान परशुराम के मंदिरों पर भंडारे किए जाते हैं ।

जिस तरह से भगवान परशुराम ने शिक्षा दीक्षा , अस्त्र-शस्त्र का ज्ञान सीखने के लिए मेहनत की थी उसी तरह से हम सभी को भगवान परशुराम जयंती पर यह प्रण लेना चाहिए कि हम भी विद्या प्राप्त करने में किसी तरह की कोई भी कमी नहीं रखेंगे क्योंकि किसी भी व्यक्ति को यदि सफलता प्राप्त करना है तो उस व्यक्ति को सबसे पहले ज्ञान प्राप्त करना होगा । ज्ञान के बिना मनुष्य का जीवन अंधकार में होता है । हम सभी को भगवान परशुराम की तरह शिक्षा प्राप्त करके शिक्षा का प्रचार प्रसार करना चाहिए ।

ज्ञान प्राप्त करने के बाद हमारा यह उद्देश्य होना चाहिए कि हम अपने ज्ञान से कई लोगों को शिक्षित करें ।

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