रश्मिरथी कविता रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखित
रश्मिरथी कविता
दोस्तों यह कविता रामधारी सिंह दिनकर ने लिखी है चलिए पढ़ते है इनकी कविता को

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जय हो जग में जले जहा भी,नमन पुनीत अनल को
जिस नर में भी बसे,हमारा नमन तेज को बल को
किसी वृंत पर खिले विपिन में,पर नमस्य है फूल
सुधी खोजने नहीं गुणों का आदि शक्ति का मूल
उंच नीच का भेद ना माने,वाही श्रेष्ठ ज्ञानी है
दया धर्म जिसमे हो,सबसे वही पूज्य प्राणी हैं
क्षत्रिय वही,भरी हो जिसमे निर्भयता की आग
सबसे क्ष्रेष्ठ वही ब्राहमण है ,हो जिसमे तप त्याग
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के
पाते है जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक
वीर खींच कर ही रहते है इतिहास में लीक
जिसके पिता सूर्य थे,माता कुंती सती कुमारी
उसका पलना हुआ धार पर बहती हुयी पिटारी
सूत वंश में पला,चखा भी नहीं जननी का क्षीर
निकला कर्ण सभी युवको में तब भी अद्भुत वीर
तन से समरशूर,मन से भावुक,स्वभाव से दानी
जाति गोत्र का नहीं,शील का,पोरुष का अभिमानी
ज्ञान ध्यान,शस्त्रास्त्र,शास्त्र का कर सम्यक अभ्यास
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकस
अलग नागर के कोलाहल से,अलग पूरी पुरजन से
कठिन साधना में उद्धोगी लगा हुआ तन मन से
निज समाधि में निरत,सदा निज कर्मठता में चूर
वन्यकुसूम सा खिला कर्ण,जग की आँखों से दूर
नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओ के उपवन में
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज कानन में
समझे कोन रहस्य प्रकर्ति का बड़ा अनोखा हाल
गुड्डी में रखती चुन कर बड़े कीमती लाल
जल्द पटल में छिपा,किन्तु रवि कब तक रह सकता है
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग
फूट पड़ी सबके समक्ष पोरुष की पहली आग
रंग भूमि में अर्जुन था जब समा अनोखा बांधे
बड़ा भीड़ भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे
कहता हुआ तालियों से क्या रहा गर्व में फूल
अर्जुन तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धुल
तूने जो जो किया,उसे में भी दिखला सकता हु
चाहे तो कुछ नयी कलाए भी सिखला सकता हु
आँखे खोल कर देख,कर्ण के हाथो का व्यापार
फूल सस्ता सुयश प्राप्त कर,उस नर को धिक्कार
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