मैथिलीशरण गुप्त की कविता पंचवटी Maithili sharan gupt poem panchvati
Maithili sharan gupt poem panchvati
Image source- https://en.wikipedia.org/wiki/Maithili_Sharan_Gupt
चारु चंद्र की चंचल किरणें खेल रही है जल थल में
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है अवनि और अंबर तल में
पुलक प्रकट करती है धरती हरित तृणों की नोकों से
मानो झीम रहे हैं तरु भी मंद पवन के झोंकों से
पंचवटी की छाया में है सुंदर पर्ण कुटीर बना
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर धीरे वीर निर्भीकमना
जाग रहा यह कौन धनुर्धर जबकि भुवन भर सोता है
भोगी कुसुमायुध योगी सा बना दृष्टिगत होता है
किस व्रत में है व्रती वीर यह निद्रा का यो त्याग किए
राज भोग के योग्य विपिन में बैठा आज विराग लिए
बना हुआ है प्रहरी जिसका उस कुटीर में क्या धन है
जिसकी रक्षा में रत इसका तन है मन है जीवन है
मृत्यु लोक मालिन्य मेटने स्वामी संग जो आई है
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह कुटी आज अपनाई है
वीर वंश की लाज यही है फिर क्यों वीर ना हो प्रहरी
बिजन देस है निशा शेष है निशाचरी माया ठहरी
कोई पास न रहने पर भी जन मन मोन नहीं रहता
आप आपकी सुनता है वह आप आपसे कहता है
बीच-बीच में इधर उधर निज दृष्टि डालकर मोद मयी.
मन ही मन बातें करता है धीर धनुर्धर नई नई
क्या ही स्वच्छ चांदनी है यह है क्या है निस्तब्ध निशा
है स्वछन्द सुमंद गंध वह निरानंद है कोण दिशा
बंद नहीं अब भी चलते हैं नियति नटी के कार्य-कलाप
पर कितने एकांत भाव से कितने शांत और चुपचाप
है बिखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर
रवि बटोर लेता है उनको सदा सवेरा होने पर
और विरामदायिनी अपनी संध्या को दे जाता है
शून्य श्याम तनु जिससे उसका नया रूप झलकाता है
सरल तरल जिन तुहिन कणों से हंसती हर्षित होती है
अति आत्मीय प्रकृति हमारे साथ उन्हीं से रोती है
अनजानी भूलो पर भी वह उदय दंड तो देती है
पर बूड़ो को भी बच्चों सा सद्य भाव से सेती है
13 वर्ष व्यतीत हो चुके पर है मानो कल की बात
बन को आते देख हमें जब आर्त अचेत हुए थे तात
अब वह समय निकट ही है जब अवधि पूर्ण होगी वन की
किंतु प्राप्ति होगी इस जन को इससे बढ़कर किस धन की
और आर्य को राज्य भार तो वे प्रजार्थ ही धारेंगे.
व्यस्त रहेंगे हम सबको भी मानो विवस विशारेंगे
कर विचार लोकोपकार का हमें ना इससे होगा शोक
पर अपना हित आप नहीं क्या कर सकता है यह नरलोक.
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