कृष्ण की चेतावनी कविता Ramdhari singh dinkar poems krishna ki chetavani

Ramdhari singh dinkar poems krishna ki chetavani

Ramdhari singh dinkar poems krishna ki chetavani-दोस्तों कैसे हैं आप सभी,रामधारी सिंह दिनकर एक ऐसे महान कवि हैं इनका जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार में हुआ था.ये वीर रस के कवि के रूप में विशेष रूप से जाने जाते हैं उन्होंने अपने जीवन में कविताएं,निबंध आदि लिखे.आज हम पढेगे कृष्ण की चेतावनी पर लिखी गई कविता को तो चलिए पढ़ते हैं

Ramdhari singh dinkar poems krishna ki chetavani
Ramdhari singh dinkar poems krishna ki chetavani

बर्षो तक वन में घूम घूम

बाधा विध्नो को चूम चूम

सह धुप घाम पानी पत्थर

पांडव आये कुछ और निखर

सौभाग्य न सब दिन सोता हैं

देखे आगे क्या होता है

 

मैत्री की राह बताने को

सबको सुमार्ग पर लाने को

दुर्योधन को समझाने को

भीषण विध्वंस बचाने को

भगवान् हस्तिनापुर आये

पांडव का संदेशा लाये

 

दो न्याय अगर तो आधा दो

पर इसमें भी यदि बाधा हो

तो दे दो केवल पांच ग्राम

रक्खो अपनी धरती तमाम

हम वही ख़ुशी से खायेंगे

परिजन पर असि ना उठाएंगे.

 

दुर्योधन वह भी दे ना सका

आशीष समाज की ले न सका

उलटे हरी को बांधने चला

जो था असाध्य साधने चला

जब नाश मनुज पर छाता है

पहले विवेक मर जाता है

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हरी ने भीषण हुंकार किया

अपना स्वरूप विस्तार किया

डगमग डगमग दिग्गज डोले

भगवान कुपित होकर बोले

जंजीर बड़ा कर साध मुझे

हां हां दुर्योधन बाँध मुझे

 

यह देख गगन मुझमें लय है

यह देख पवन मुझमे लय है

मुझमे विलीन झंकार सकल

मुझमे लय है संसार सकल

अमरत्व फूलता है मुझमे

संहार झूलता है मुझमे.

 

उदयांचल मेरा दीप्त भाल

भूमंडल वक्षस्थल विशाल

भुज परिधि बंध को घेरे हैं.

मैनाक मेरु पग मेरे हैं.

दिपते जो गृह नक्षत्र निकर

सब है मेरे मुख के अन्दर

 

ड्र्ग हो तो द्रश्य अकाण्ड देख

मुझमे सारा भ्र्ह्मांड देख

चर अचर जीव जग क्षर अक्षर

नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर

शत कोटि सूर्य शत कोटि चन्द्र

शत कोटि सरित सर सिन्धु मन्द्र

 

शत कोटि विष्णु ब्रह्मा महेश

शत कोटि विष्णु जल्पति धनेश

शत कोटि रूद्र शत कोटि काल

शत कोटि दंडधर लोकपाल

जंजीर बढाकर साध इन्हें

हां हां दुर्योधन बाँध इन्हें

 

भूलोक अटल पाताल देख

गत और अनागत काल देख

यह देख जगत का आदि स्रजन

यह देख महाभारत का रन

म्र्तको से पती हुयी भू है

पहचान इसमें कहा तू हैं.

 

अम्बर में कुंतल जाल देख

पद के नीचे पाताल देख

मुट्ठी में तीनो काल देख

मेरा स्वरुप विकराल देख

सब जन्म मुझी से पाते हैं.

फिर लोट मुझी में आते है

 

जिह्वा से कडवी ज्वाल सघन

साँसों में पाता जन्म पवन

पड जाती मेरी द्रष्टि जिधर

हंसने लगती है स्रष्टि उधर

में जभी मुड़ता हू लोचन

छा जाता चारो और मरण

 

बाँधने मुझे तो आया है

जंजीर बड़ी क्या लाया है

यदि मुझे बांधना चाहे मन

पहले तो बाँध अनंत गगन

सूने को साध न सकता है

वह मुझे बाँध कब सकता हैं.

 

हित वचन नहीं तूने माना

मैत्री का मूल्य न पहचाना

तो ले में भी अब जाता हू.

अंतिम संकल्प सुनाता हू

याचना नहीं अब रण होगा

जीवन जय या की मरण होगा.

 

टकरायेंगे नक्षत्र निकर

बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर

फन शेषनाग का डोलेगा

विकराल काल मुह खोलेगा.

दुर्योधन रण ऐसा होगा.

फिर कभी नहीं जैसा होगा.

 

भाई पर भाई टूटेंगे

विष बाण बूँद से छूटेंगे

वायस श्रंगाल सुख लूटेंगे

सोभाग्य मनुज के फूटेंगे

आखिर तू भूशायी होगा

हिंसा का पर दायी होगा

 

थी सभा सन्न सब लोग डरे

चुप थे या थे बेहोश पड़े

केवल दो नर ना अघाते थे

ध्र्तराष्ट्र विदुर सुख पाते थे

कर जोड़ खड़े प्रमुदित

निर्भय दोनों पुकारते थे जय जय

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